मुझे लगता है कि ज़िंदगी में कई लम्हात ऐसे भी आते हैं जब बहुत से डर, बहुत-सी दुश्वारियां सामने होती हैं। जीने का माद्दा दिखाए बिना लोग शाख़ों पर बैठे-बैठे ही सूख जाते हैं, हजारों ख़्वाहिशें लिये...सूखे बिना अपने डर, अपनी हदों से कैसे बाहर निकल सकते हैं? इस बात का मुकम्मल जवाब तो यही है- टहनी छोड़ें पानी में उतरें! उतरना ही चाहिए! जीतना आप तभी शुरू करते हैं।
मेरा ख़याल है कि री-इनवेंशन के लिए ज़रूरी है कि यह भीतर से हो तभी फ़र्क़ दिखाई देगा। मैंने ‘परिचय’, ‘आंधी’, ‘माचिस’ जैसे कई तजुर्बात किए। ख़ुद को री-इनवेंट करना आसान नहीं है, मुमकिन ज़रूर है! हालांकि न इसका कोई ग्रामर है न फ़िक्स फ़ॉर्मूला! री-इनवेंशन की शुरुआत ख़ुद के बदलाव से की जा सकती है। बाहरी बदलाव तो सिर्फ़ ज़ाहिराना है। अंदरूनी किया तो बाहर भी ज़ाहिर हो जाएगा। री-इनवेंट करने के लिए आपको सारे एंटीने खुले रखने पड़ते हैं। सोचने के लिए, समझने के लिए ताकि आप हालात को भी देखें, ज़रूरियात को भी देखें और उसी को रिसीव करें जो वक़्त की पुकार है।
वैसे आदमी जब खु़द को रिपीट करने लगता है तो मेंटल ब्लॉक आता है, यहीं ख़ुद को री-इनवेंट करने की ज़रूरत पड़ती है। ज़िंदगी को लेकर मेरा फ़लसफ़ा है कि हर चीज़ में लॉजिक ढूंढ़ेंगे तो जिएंगे कहां से? इतनी आसान होती ज़िंदगी कि ग्रामर में पढ़ी जा सकती तो ग्रामर की किताब सामने रखकर जी लेते हम सब...ज़िंदगी की खू़बसूरती ही यही है कि वह अनकही है, अनजान है। कौन जानता है अगले पल क्या होगा?
मुझसे कई बार पूछा जाता है कि क्या आपने ज़िंदगी में सबकुछ पा लिया है? मेरा जवाब होता है-नहीं! ऐसा नहीं है। बहुत कुछ जानने की तमन्ना है। ज़िंदगी अभी भी नए-नए रास्ते खोल रही है। आपकी तरह बहुत सारी इच्छाएं मेरी भी हैं। जैसे, अब आप एस्ट्रोनॉट तो नहीं बन सकते, लेकिन क्या अंतरिक्ष में सैर करने का जी भी नहीं चाहता। स्पेस-स्टेशन में अंतरिक्ष यात्री 6 महीने रहते हैं। मैं कल्पना करता हूं कि वो वहां से नीचे ज़मीन को देख रहे हैं गोले की तरह...ये बात सोचकर भी कमाल लगती है कि आप ऐसी जगह पर हैं जहां से पूरा ग्लोब नजर आ रहा है, सूरज और सितारे भी नज़र आ रहे हैं। तो सीखने-सिखाने की कवायद तो ताउम्र चलती है। ज़िंदगी हर कदम पर आपको सिखाएगी, आपको सीखना पड़ेगा। यही री-इनवेंशन है और इसकी शुरुआत करना ही जागना और जीत की तरफ कदम बढ़ाना है।
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