यशराज फिल्म्स के कॉरपोरेट बनने और अंधेरी के हाई-टेक ऑफिस में शिफ्ट होने से पहले यश चोपड़ा अपेक्षाकृत एक छोटे ऑफिस से ही अपना पूरा कामकाज देखते थे। जुहू में स्थित यह आज भी एक बंगले में रूप में मौजूद है। इसके ग्राउंड फ्लोर पर एक छोटी-सी लॉबी थी और एक लिफ्ट भी जो सीधे पहली मंजिल पर पहुंचती थी। इस पहली मंजिल के करीब-करीब आधे भाग में यश चोपड़ा का अपना ऑफिस था। बाकी आधे हिस्से में उनके एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ के लिए छोटे-छोटे कैबिन बने हुए थे।
मेरी अक्सर यशजी से मुलाकातें होती रहीं। वे मुझे अपने संघर्ष के दिनों, निर्देशक के तौर पर अपनी पहली फिल्म, पहले प्रीमियर और परेल में वी. शांताराम के राजकमल स्टूडियो में अपने कामचलाऊ, लेकिन पूरी तरह से पहले स्वतंत्र ऑफिस की कहानियां सुनाते। वे बताते कि पुराने दिनों में कैसे फिल्में एक पारिवारिक माहौल में बनाई जाती थीं। जो एक्टर्स उनके साथ काम करना चाहते, उन्हें कास्ट कर लेते, उनकी तारीखें देख लेते और एक मुहूर्त निकाल लेते। एक साल के भीतर ही फिल्म बनकर तैयार हो जाती। लिखित में कोई कांट्रैक्ट नहीं होता, फिर भी सभी ने जो कमिट कर दिया तो कर दिया। वैसे ही काम करते। सब विश्वास और संबंधों पर चलता था। किसी को कोई शिकायत नहीं होती।
दशकों के बाद कार्य-संस्कृति में भारी बदलाव आया। बजट भी बहुत बढ़ गए। यशजी मजाक में कहते, पहले जितने पैसे में फिल्म बन जाती थी, अब उतना बजट तो मनीष मल्होत्रा की डिजाइन की हुई कॉस्ट्यूम के लिए रखना पड़ता है। वे बताते, ‘मैं एक्टर के कान में राशि का फिगर फुसफुसा देता और उसी दिन डील हो जाती।’
लेकिन जल्दी ही सभी स्टूडियो और प्रोडक्शन हाउस के लिए कांट्रैक्ट एक जरूरी चीज बन गई। भविष्य में कोई दिक्कत न हो, इसके लिए टॉप लीगल टीमों पर भारी-भरकम राशि खर्च की जाती। लेकिन 2020 में दो ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिसने मनोरंजन जगत के इस पूरे धंधे की हकीकत को बदलकर रख दिया। एक, कोरोना की महामारी और दूसरा, सुशांत सिंह राजपूत की अप्राकृतिक मृत्यु।
रोजाना की जिंदगी का ‘न्यू नॉर्मल’ मास्क पहनना, दो गज की दूरी बनाए रखना और बार-बार साबुन से हाथ धोना है, लेकिन फिल्मी दुनिया के लिए ‘न्यू नॉर्मल’ कुछ ‘क्रांतिकारी’ ही तलाशना होगा। अन्य तमाम प्रोफेशन में तो ‘वर्क फ्रॉम होम कल्चर’ को अपनाया जा सकता है, लेकिन फिल्मों के लिए यह संभव ही नहीं है। इसमें कई स्तरों पर कई लोगों की महत्वपूर्ण भूमिकाएं होती हैं, जैसे उदाहरण के तौर पर एक एक्टर को मैकअप आर्टिस्ट भी चाहिए तो कॉस्ट्यूम डिजाइनर भी। कैमरामैन के लिए लाइटमैन जरूरी है। और फिर निर्देशक को कई सहायकों की जरूरत पड़ती है। और सभी को एक-दूसरे के निकट संपर्क में आना ही पड़ता है।
काफी चुनौतियों के बावजूद कुछ फिल्म और टेलीविजन प्रोडक्शन हाउस ने सेट पर थर्मोमीटर्स, सैनेटाइजर्स और डॉक्टर्स की व्यवस्था करके शूटिंग का काम शुरू कर दिया है। हाल ही में सतीश कौशिक ने अपनी एक तस्वीर पोस्ट कर कहा कि हम तैयार हैं। उनकी पूरी टीम पीपीई किट और शील्ड्स में नजर आ रही थी। एक अन्य एक्टर ने ट्वीट कर बताया कि कैसे संवाद लेखक इंटीमेंट के दृश्यों को इस तरह से गढ़ रहे हैं ताकि अभिनेता-अभिनेत्री को एक-दूसरे को छूने की जरूरत ही नहीं पड़े।
सबसे बड़ी चुनौती तो फंड को लेकर आएगी। नतीजतन, आने वाले वक्त में कुछ ही प्रोजेक्ट आएंगे, वह भी अपेक्षाकृत कम बजट और कम क्रू मेंबर्स के साथ। मनोरंजन जगत का यही न्यू नॉर्मल होगा। सभी को कम मानदेय स्वीकार करना पड़ेगा। कोई स्पॉट बॉय नहीं होगा। तकनीकी टीमों को भी कुछ ही सहायकों से काम चलाना पड़ेगा। भारत के बाहर, बल्कि शायद महाराष्ट्र के बाहर भी शूटिंग पर फिलहाल के लिए तो विराम लगाना होगा।
स्टार कांट्रैक्ट्स भी अब और सख्त होंगे। गोपनीयता संबंधी शर्तें तो होंगी ही जिसके तहत एक्टर्स को विषयवस्तु के बारे में चर्चा करने से मना किया जाता है, कुछ और भी शर्तें जोड़ी जा सकेंगी, जैसे शूटिंग वाले स्थान पर अपने मेहमानों को नहीं ला सकेंगे, सेट पर सेल्फी या पिक्चर नहीं ले जाएंगे। कई फिल्ममेकर्स कॉस्मेटिक सर्जरियों पर प्रतिबंध लगाते हैं ताकि उनके हीरो या हीरोइन फिल्म के बीच में अलग नजर ना आने लगे। अब नशीले पदार्थों से संबंधित कोई शर्त भी आ सकती है, जो निस्संदेह सुशांत सिंह राजपूत मामले का ही परिणाम कही जा सकती है।
अगर एकता कपूर अपने एक्टर्स से उनकी जन्मकुंडली मांग सकती हैं, तो फिल्म निर्माताओं के वकीलों की फौज को भी ‘आउट ऑफ बॉक्स’ सोचने का पूरा अधिकार है।
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